AlignIndia
Current Issues Hindi Social Justice

किसान आंदोलन के दूरगामी परिणाम

प्रदीप माथुर

जन आंदोलन या विरोध प्रदर्शन हमेशा दो लक्ष्यों पर केन्द्रित होते हैं- एक तो वह स्थापित व्यवस्था को चुनौती देते हैं और दूसरे वह यथास्थिति को तोड़ने की पुरजोर कोशिश करते हैं। वास्तव में कोई भी आंदोलन आंदोलनकारियों की अभिलाषाओं, आकांक्षाओं और उनके आर्थिक हितों की रक्षा करने का माध्यम होता है और जीवन में आगे बढ़ने की उनकी इच्छा को प्रदर्शित करता है।

कोई आंदोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कितना सफल होगा या नहीं, यह कह पाना बड़ा मुश्किल काम है। लेकिन हां, यह बात तो अवश्य कही जा सकती है कि आंदोलन अकसर समाज पर अपनी गहरी छाप छोंडने में कामयाब होते हैं और वह समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाते हैं। किसानों का यह आंदोलन इसका कोई अपवाद नहीं है।

चूंकि, आंदोलनकारी किसानों और केंद्र के बीच समझौता नहीं हो पा रहा है और जनमत भी इस पर विभाजित है, इसलिए हम इस किसान आंदोलन के दूरगामी परिणामों को नहीं समझ पा रहे हैं। यदि वर्ष 1970 के दशक के जेपी आंदोलन ने हमारे राजनीतिक नेतृत्व के अभिजात्य चरित्र को बदला और मध्य वर्गों के लिए सत्ता के हस्तांतरण का मार्ग प्रशस्त किया, तो वर्ष 2010 के अन्ना हजारे आंदोलन ने व्यवस्था के दावेदारों को कठघरे में खड़ा करने का काम किया। सत्य यह है कि न तो जेपी आंदोलन किसी सम्पूर्ण क्रांति को लाने में सफल हुआ और न ही अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सफल हुआ। इस नजरिए से देखा जाय तो किसान आंदोलन के अंतिम परिणाम जो भी हों, लेकिन यह उम्मीद करना कि किसान आंदोलन हमारे कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार का कारण बनेगा, ठीक नहीं होगा। हालाँकि, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसान आंदोलन देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव अवश्य लाएगा।

किसान आंदोलन सरकार द्वारा किसानों की कुछ आर्थिक मांगों पर सहमति के साथ समाप्त हो सकता था। लेकिन व्यापक समर्थन व आंदोलन में किसानों की अप्रत्याशित भागीदारी, मीडिया कवरेज, बुद्धिहीन और असंवेदनशील सरकारी नजरिये जैसे कारकों ने आंदोलन को काफी लंबा कर दिया और आंदोलन के चरित्र को गैर-राजनीतिक से राजनीतिक मोड़ दे दिया। अब आंदोलन कुछ छोटे मुद्दों से शुरु होकर सीमांत किसानों की आजीविका और सशक्तिकरण के वास्तविक मुद्दों पर आ गया है। ऐसे में सामाजिक जीवन के तमाम पहलूओं पर किसान आंदोलन का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।

आंदोलन को विफल करने के लिए सदैव की भांति मोदी सरकार द्वारा भावनात्मक मुद्दों का सहारा लिया गया। पंजाब से आए किसानों को खालिस्तानी और राष्ट्रद्रोही बताया गया। पर आंदोलन के जोर पकड़ने पर राष्ट्रवाद, देशभक्ति, और राष्ट्रीय अखंडता में सेंध तथा टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसी शब्दावली निश्चित रूप से बेमानी लग रही है। अब सामान्य जनमानस का ध्यान इस बात पर है कि क्या वास्तव में तीनों कृषि कानून छोटे और सीमांत किसान के हितों के विरुद्ध हैं जो एक आर्थिक मुद्दा है। हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे जन संवाद में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की बात रोटी-रोजी के मुद्दों द्वारा दब जाएगी।

चुनावी परिदृश्य पर धर्म और राष्ट्रीयता जैसे भावनात्मक मुद्दों की सरकती जमीन का काफी प्रभाव पड़ेगा। खासकर तब जब चार महत्वपूर्ण राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश में आने वाले दिनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सत्तारूढ़ भाजपा को, जो कि अब तक भावनात्मक मुद्दों पर पनप रही है, चुनावों में व्यापक समर्थन सुनिश्चित करने के लिए अपनी रणनीति बदलनी होगी। हालाँकि यह तथ्य है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से भावनात्मक मुद्दों ने अपनी जमीन खोना शुरू कर दिया है। पिछले साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव में यह बदलाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा था, जब अनुभवहीन और युवा तेजस्वी यादव ने रोजगार के मुद्दे को उठाकर भाजपा और जद(यू) के वरिष्ठ नेताओं के सामने गंभीर चुनौतियां खड़ी कर दी थी और सभी जातियों और समुदायों से व्यापक समर्थन हासिल करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को गंभीर चुनौती दी थी।

वर्ष 2013 में हिंसक सांप्रदायिक दंगों में शामिल पश्चिम यू.पी. के मुस्लिम और हिंदू वर्गों ने अपनी गलती स्वीकार की है और अपने साम्प्रदायिक टकराव पर खेद व्यक्त किया है। इसके साथ ही उन्होंने कृषि कानूनों को निरस्त कराने के लिए मिलकर लड़ने का फैसला किया है। किसान आंदोलन में अल्पसंख्यकों की बढ़ती सक्रियता से अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा का प्रचार निश्चित रूप से कमजोर हुआ है और आशा की जा सकती है कि साम्प्रदायिक सद्भाव फिर से बहाल होगे। यह निश्चित रुप से राजनीतिक परिदृश्य को बदलेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि चार राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में इसका परिणाम देखने को मिलेगा।

किसान आंदोलन में सभी उम्र की ग्रामीण महिलाओं को बड़े पैमाने पर भागीदारी करते देखा गया है। इससे  महिला सशक्तिकरण के अभियान को एक नया आयाम मिलेगा। वैसे तो भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए अभियान काफी समय से चल रहे हैं लेकिन जो नारीवादी आंदोलन 40 वर्षों से अधिक समय में प्राप्त नहीं कर सका वह महज कुछ ही महीनों में किसान आंदोलन ने हासिल कर दिखाया। यह इस आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि रही है। ऐसे में आने वाले समय में यह उम्मीद की जा सकती है कि हमारा ग्रामीण समाज लैंगिक समानता (जेंडर इक्वलिटी) को सुनिश्चित करने के लिए आगे आएगा और हमारी आधी आबादी को जंजीरों में बाँधने वाली सभी बेड़ियों से आजाद कराने की राह प्रशस्त करेगा।

इसी तरह, किसान आंदोलन ने रोजी-रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर जोर देकर युवाओं की मानसिकता में बदलाव किया है और इन मुद्दों से जुड़ी राजनीति में भागीदारी की प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया है। यह प्रक्रिया छात्र संघों पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद समाप्त प्राय हो गई थी। संचार क्रांति और वर्ष 1980 के बाद के समय में आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद की संस्कृति के बाद से भारतीय मध्यम वर्ग विरोध और आंदोलन की संस्कृति से दूर जाता रहा है। परिणामस्वरुप श्रमिकों और सीमांत किसानों को वह बौद्धिक नेतृत्व नहीं मिला जो उनकी मांगो की अभिव्यक्ति के लिए व्यवस्था से संघर्ष में आवश्यक है।

पिछले दशकों में पनपे व्यक्तिवाद और धन के लालच ने हमारे युवा वर्ग को अन्याय और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाले मानसिक दृष्टिकोण से दूर कर दिया है। सामाजिक चेतना, करुणा, समानता और सामाजिक न्याय जैसे शब्द उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में कहीं भूला दिए गए हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी और नेतृत्व करने वाले शिक्षित शहरी मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि का युवा वर्ग भी जनता की आकांक्षाओं के प्रति उदासीन हो गया है। 

जन आंदोलनों की संस्कृति का पुनरुद्धार शायद किसानों के आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम होगा और वर्तमान शासन को सबसे ज्यादा डर इस बात का ही है। यह पुनरुद्धार, सोये हुए ट्रेड यूनियन आंदोलन को एक नया जीवन देगा और श्रमिकों की वास्तविक मांगों को बहुत प्रभानशाली तरीके के साथ उठाकर उस कार्पोरेट जगत के लिए सिरदर्द बनेगा जो वर्तमान सरकार के संरक्षण में फलफूल रहा है। पिछले 100 दिनों में  किसानों के संघर्ष को तमाम बुद्धिजीवियों सहित शहरीय मध्यम वर्गों का भी समर्थन मिल रहा है। ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि यह आंदोलन उपभोक्तावाद-निर्मित शहरी-ग्रामीण विभाजन को पाटने में मददगार साबित होगा। साथ ही यह भी आशा की जा सकती है कि किसान आंदोलन एक नयी मानसिकता देकर हमारे समाज को गांवों के खेत-खलिहानों में काम करनेवाले किसानों और घर-परिवार के कामकाज के साथ-साथ पुरुषों के साथ खेतों में कड़ी मेहनत करनेवाली महिलाओं के प्रति मानवीय व संवेदनशील दृष्टिकोण देगा। यह अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि किसान आंदोलन सामाजिक परिवर्तन का सूत्रधार बनेगा।

प्रदीप माथुर, वरिष्ठ पत्रकार, पत्रकारिता शिक्षक व एलाइन इंडिया न्यूज पोर्टल के मुख्य संपादक हैं।

Related posts

A Masterclass on the Farmers’ Protests

Seroja Manoj

The Morality of the Farmers’ Dissent

Seroja Manoj

Facebook: An Enabler of Anti Democratic Forces?

Alok Jagdhari